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बुधवार, 28 सितंबर 2016

दुनिया कभी खाली नहीं होती .........

सोचती हूँ
सहेज दूँ ज़िन्दगी की बची अलमारी में
पूरी ज़िन्दगी का बही खाता
बता दूँ
कहाँ क्या रखा है
किस खाने में कौन सा कीमती सामान है

मेरे अन्दर के पर्स में कुछ रूपये हैं
जो खर्च करने के लिए नहीं हैं
लिफाफों में हैं
निकालती हूँ हमेशा सबके जन्मदिन पर एकमुश्त राशि
करुँगी प्रयोग किसी जरूरतमंद के लिए

ऐसे ही कुछ रूपये
तुम सबकी सैलरी के हैं हरी डिब्बी में
वो भी इसीलिए निकाले हैं
जो किये जा सकें प्रयोग
किसी अनाथाश्रम में या वृद्ध आश्रम में

बाकी तो बता दूँगी तुम्हे लॉकर का नंबर भी
पता है मुझे
नहीं याद होगा तुम्हें
निश्चिन्त रहे हो मुझ पर सब छोड़कर
सुनो
मोह नहीं मुझे उसका भी
जैसे चाहे प्रयोग करना
बच्चों को पसंद आये तो उन्हें देना
न आये तो नए बनवा देना
जब शरीर ही नहीं बचेगा
तो ये तो धातु है , इससे कैसा प्रेम ?

बाकी और कौन सी चाबी कहाँ रखी है
जानते हो तुम
कभी तुम से या बच्चों से कुछ छुपाया जो नहीं
इसलिए बताने को भी ज्यादा कुछ है भी नहीं
तुम सोच रहे होंगे
तुमसे कुछ नहीं कहा
एक उम्र के बाद कहने को कुछ नहीं बचता
दोनों या तो एक दूसरे को इतना समझने लगते हैं
या फिर .....?

फिर भी मेरी यादों के तिलिस्म में मत उलझना
वैसे भी सफ़र कहीं न कहीं ठहरता ही है
उम्र का ढलान गवाह है
और मैंने ऐसा कुछ किया ही नहीं
जिसके लिए याद रखा जाए
विवाह की वेदी पर
साथ रहने को मजबूर कर दिए गए अस्तित्वों में
असंख्य छेदों के सिवा और बचता ही क्या है ?
चलो छोडो ये सब
विदाई की बेला में बस इसे मेरी इल्तिजा समझना
बच्चों पर अपनी इच्छाएं मत थोपना
उन्हें उड़ान भरने देना
कभी जबरदस्ती मत करना
बस कर सको तो इतना कर देना

और हाँ बिटिया
अब जिम्मेदारी तुझ पर होगी
लेकिन
तुम्हीं एक बात समझनी होगी
खुद की ज़िन्दगी से न कोई समझौता करना
वर अपने मन का ही पसंद करना
दबाव और डर से न ग्रस्त होना
मैं नहीं होऊँगी तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए लड़ने को
अपनी लड़ाई तुम्हें खुद लड़नी होगी
अपनी पहचान खुद बनानी होगी
यहाँ आसानी से कुछ नहीं मिलता
जानती हूँ
गिव अप की तुम्हारी आदत को
तुम्हारे बदलने से ही दुनिया बदलेगी 

न को न और हाँ को हाँ समझाना
अब तुम्हारा काम है बच्ची
बेटा
तू भी एक मर्द है
लेकिन
तू नामर्द न बनना
इंसानियत की मिसाल बनना
स्त्री का न अपमान करना
वो भी इंसान है तुम सी ही
बस इतनी सी बात याद रखना
उसके अस्तित्व पर न प्रश्नचिन्ह रखना
जिस दिन जीवन में उतार लोगे
अपनी सोच से दुनिया को बदल दोगे

बाकी
हवा , मिटटी , पानी का क़र्ज़ तो
साँस देकर भी न चुका पाऊँगी
चाहे मिटटी में दबाना या अग्निस्नान कराना
या पानी में बहाना
देखना मिलूंगी मिटटी में ही मिटटी बनकर
फिर खिलूंगी इक फूल बनकर
और बिखर जाऊँगी फिजाओं में खुशबू बनकर
बस हो जाउंगी कर्जमुक्त

बाकी
जो यहाँ से पाया यही छोड़ कर जाना है
अटल सत्य है ये
इसलिए
मेरे सामान में अब मेरी किताबें हैं
जो शायद तुम में से किसी के काम की नहीं
मेरा लेखन है
जिससे तुम सभी उदासीन रहे
तो मत करना परवाह मेरी अनुभूतियों की
कोई मांगे दे देना
खाली हाथ आये खाली जाना है
तो फिर किसलिए दरबार लगाना है
रहना कुछ नहीं
फिर किसलिए इतनी लाग लपेट 

मुक्त हो जाना चाहती हूँ हर बंधन से
और ये भी एक बंधन ही तो है


ये मेरी न वसीयत है न अंतिम इच्छा
जानती हूँ
जाने के बाद कोई वापस नहीं आता
जानती हूँ
कुछ समय रोने के बाद कोई याद नहीं रखता
आगे बढ़ना प्रकृति का नियम है
फिर भी
अंतिम फ़र्ज़ निभाने जरूरी होते हैं
कल याद कभी आऊँ तो
गिले शिकवे से न आऊँ
यही सोच
कह दी मन की बात
वर्ना
मुझसे तो रोज जन्मते और मरते हैं
दुनिया कभी खाली नहीं होती .........


डिसक्लेमर :
ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta

बुधवार, 21 सितंबर 2016

ये कैसा हाहाकार है

ये कैसा हाहाकार है

कुत्ते सियार डोल रहे हैं
गिद्ध माँस नोंच रहे हैं
काली भयावह अंधियारी में
मचती चीख पुकार है
ये कैसा हाहाकार है

चील कौवों की मौज हुई है
तोता मैना सहम गए हैं
बेरहमी का छाया गर्दो गुबार है
ये कैसा हाहाकार है

काल क्षत विक्षत हुआ है
धरती माँ भी सहम गयी है
उसके लालों पर आया 
संकट अपार है
ये कैसा हाहाकार है

अत्याचार का सूर्य उगा है
देख , दिनकर का भी शीश झुका है
दहशतगर्दों ने किया अत्याचार है
ये कैसा हाहाकार है

शेर चीते सो रहे हैं
गीदड़ भभकी से क्यों डर रहे हैं
कैसी चली उल्टी बयार है
ये कैसा हाहाकार है 
धरती माँ के उर में उरी का दंश उगा है 

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©वन्दना गुप्ता vandana gupta