पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

हवाओं ने रुख बदलना शुरु कर दिया है

तडपती नहीं
घिघियाती नहीं
मिमियाती नहीं
कसमसाती नहीं
तुम्हारे अहम को अब 
पो्षित करती नहीं
जान गयी हूँ अपने होने का औचित्य
अच्छा हो ……ये भेद तुम भी 
जल्द ही समझ लो 
क्योंकि
हवाओं ने रुख बदलना शुरु कर दिया है


रविवार, 24 नवंबर 2013

" तेरे नाम के पीले फूल " ………मेरी नज़र से



 " तेरे नाम के पीले फूल " मोहब्बत से सराबोर इश्क की दास्ताँ है जहाँ सिर्फ और सिर्फ प्रेम ही प्रेम समाहित है।  ढूंढने निकलो तो खुद को ही भूल जाओ , प्रेम की तासीर में बह जाओ और अपना पता ही भूल जाओ।  और क्या चाहिए भला एक पाठक को , अपने दिल की आवाज़ जब कहीं   उसे सुनाई देती है तब कहाँ भान रहता है दीन और दुनिया का।  एक प्रेम के नगर में प्रवेश करने के बाद बस प्रेम रस में प्रेमी बन बह जाता है।  बस यही तो आकर्षण है जो "तेरे नाम के पीले फूल "काव्य संग्रह में नीलम मेदीरत्ता ने संजोया है ।सभी कवितायेँ अपनी ओर आकर्षित करती हैं इस तरह कि बरबस दिल की खूंटियों पर टंगे अरमान मचलने लगते हैं , कुछ अपनी सी कहानी कहती लगती हैं कवितायेँ तो अनायास एक तारतम्य सा बन जाता है और यही किसी लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है जब उसके पाठक को उसकी रचनाओं में अपना अक्स, अपने पीड़ा , अपनी ज़िन्दगी नज़र आती है .

"प्रेम पिंजरा " प्रेम का पिंजरा होता ही ऐसा है जिसमे एक बार कैद हो जाओ तो उम्र  निकल सकता और फिर उसमे जब स्त्री प्रेम करती है तो पूरी शिद्दत से करती है ये पुरुष जनता है तभी तो जब वो खुद को आज़ाद करने को कहती है तो वो कह उठता है ----
मूर्ख !! अगर तुझे आज़ाद ही करना था /तो मैं प्रेम क्यों सिखाता / खोल देता हूँ पींजरा।/ अगर उड़ सकती है तो उड़ जा। ............. 
इसके बाद कहने को क्या बचा भला ?

"प्रेम का प्याला "जिसने प्रेम का प्याला पिया या जिसने ये गर्ल पिया उसे भला पीने को क्या बाकि रहा और प्रेम दीवाने तो सबको अपना सा बन्ने कि ही इच्छा रखते हैं फिर चाहे किसी विश्वामित्र कि तपस्या भंग हो या मीरा बन प्रेम का प्याला पिया हो।  


नीलम की कवितायेँ प्रेम का ताजमहल बनाती हैं जहाँ उनकी कविता अधूरी है गर मुकम्मल न हो पाये ज़िन्दगी की आरज़ू कुछ ऐसा ही भाव संजोया है "अधूरी कविता "मे तो "खुद से प्यार " कविता में खुद को चाहने के भाव इतनी सहजता से उतरे हैं कि किसी को भी खुद से प्यार हो जाये। 


अब जहाँ प्रेम होगा तो वहाँ दर्द भला कैसे पीछे रहेगा वो तो उसका जन्म जन्म का संगी साथी है।  कैसे हिल मिल आँख मिचौली खेल करते हैं दोनों क्या किसी से छुपा है तभी तो "रुदाली" में स्त्री के जीवन की पीड़ा रात के चौबारे पर कैसे मातमपुर्सी करती है और सुबह के मुहाने पर कैसे ओस सी खिलती है इसका बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है। 

"तेरी तस्वीर " , "तेरा नाम " , " पीले फूल " " द्वार नहीं खटखटाती हूँ " सभी कवितायेँ प्रेम के विभिन्न आयामों से गुजरती एक प्रेमिका के समर्पण और प्रेम का आख्यान है जहाँ वो खुद को हर पल जी रही है प्रेम के घूँट भर भर पी रही है मगर फिर भी ना तृप्त हो रही है। 

आगे में पकाते पकाते मुझे /उसके हाथ भी जले /मैं तपी पर सोना न बन सकी / रख बन गयी / एक चिंगारी आज भी सुलगा करती है मुझ में कहीं / और वक्त का खेल देखो / आज कोई मुझे कुम्हार / और खुद को कच्ची मिटटी कह गया / और मैंने झट रख में अपने हाथों कि हड्डियां छुपा ली……………… "कच्ची मिटटी " कविता जैसा चाहे ढाल लो के भाव को पुख्ता करती है तो साथ में कहती है अपना बना लो या मुझे मुझसे जुदा  कर दो , हूँ तुम्हारा ही हिस्सा बस तुम एक नेक दुआ तो करो। 

"नागराज " कविता प्रेम का डंक जिसे लगा बस वो ही तो जी उठा के भाव को मुखरित करती प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाती है तो " क़त्ल " में तो जैसे रूह के कत्लेआम पर रूह भी कसमसाती है।  

संवेदनशील मन प्रहार करता है "सुनो ! लड़कों " कविता के माध्यम से आज दिए जाने वाले संस्कारों पर जो उसी तरह बोने जरूरी हैं जैसे एक लड़की में रोपित किये जाते हैं।  
कुछ कड़वी लगी न / हाँ ऐसी ही हूँ मैं / ज्यादा  कड़वी /ज्यादा सच्ची /ज्यादा नशीली /
वैधानिक चेतावनी : सिगरेट पीना स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है 
"सिगरेट सी हूँ मैं " कविता में स्त्री के मनोभावों को प्रस्तुत करती कवयित्री ज़िन्दगी की तल्खियों को भी उतार देती हैं। 

बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कविता संग्रह प्रेम की दुनिया का भ्रमण तो कराता ही है साथ में मन को भी भ्रमर सा  बहा ले जाता है जो हर  कविता पर पीहू पीहू सा पुकार लगाता है।  मन के तारों पर प्रेम की सरगम जब गुनगुनाती है तब मधुर संगीत उपजता है जिसमे डूबे रहने को जी चाहता है।  बस यही तो हैं " तेरे नाम के पीले फूल " जो सहेजे हैं कवयित्री ने जाने किन किन गलियों से गुजरते हुए , किन किन पड़ावों पर ठहरते हुए क्योंकि मोहब्बत के शाहकार यूं ही नहीं बना करते जब तक इश्क के चिनार नहीं खिला करते।  

नीलम और बोधि प्रकाशन को बधाई और शुभकामनाएं देते हुए यही कहूँगी कि ७० रूपये बेशक किताब की कीमत हो मगर कवयित्री के भाव अनमोल हैं जिन्हे जब पाठक पढ़ेगा और उनसे गुजरेगा तभी समझेगा और ऐसे भावों को पढ़ने और उसमे डूबने के लिए ये कीमत कोई ज्यादा नहीं। 

तो दोस्तों यदि आप इस संग्रह को पढ़ने की इच्छा रखते हों तो बोधि प्रकाशन या नीलम मेंदीरत्ता से संपर्क कर सकते हैं :

ईमेल :neelammadiratta@gmail.com

बोधि प्रकाशन 
दूरभाष : ०१४१-२५०३९८९।  ९८२९०-१८०८७ 

ईमेल: bodhiprakashan@gmail.com 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

तब तक मेरी भावनाओं से खेलना तुम्हारा अपराध नहीं

आओ खेलो मेरी भावनाओं से 
ठगो मेरे विश्वास को 
करो मेरी आस्था का क़त्ल 
खूं करना कितना आसाँ जो है 
क्या हुआ जो मेरा भरोसा टूटा 
क्या हुआ जो मेरी संवेदनायें सूखीं 
क्या हुआ जो मेरा मन अब बंजर हुआ 
तुम तो कुकुरमुत्तों से उगते रहोगे 
तुम तो मेरी भावनाओं का बलात्कार करते रहोगे 
क्योंकि 
नपुंसक हो गया है समाज 
नपुंसक हो गयी है मानवीयता की जमीन 
तभी तो 
नहीं दिखती तुम्हें आज 
हर स्त्री में माँ , बहन और बेटी 
तभी तो 
करते हो तुम बलात्कार 
कभी बाबा बनकर 
कभी नेता बनकर 
कभी कलम का सिपाही बनकर 
तो कभी गली चौराहे पर घूमता 
हवस का पुजारी बनकर 
कैसे और कहाँ और कब तक मैं सुरक्षित हूँ 
कानून की धज्जियाँ तुम उड़ाते हो 
मुझे किसी ना किसी तरह 
अपने चंगुल में फंसाते हो 
कभी हमदर्द बनकर 
कभी मसीहा बनकर 
तो कभी शिकारी बनकर 
आह ! मेरे विश्वास की नींव को 
दीमक बन खोखला कर दिया तुमने 
अब सोचती हूँ तो पाती हूँ 
स्त्री विमर्श के नारों में भी मेरा 
महज उपयोग भर किया तुमने 
मानो बच्चे को मन बहलाने को 
बस झुनझुना दिया तुमने 
जबकि पाशविक मानसिकता पर अपनी 
नकेल ना कसा तुमने 
फिर कैसे सुरक्षित रह सकती हूँ 
ये ना सोचा मैंने 
इसलिए 
जब तक मैं खुद के लिए खुद ही 
कोई पुख्ता ज़मीन नहीं बनाती 
जब तक मैं खुद अपने लिए खुद ही 
अपनी आवाज़ नहीं उठाती 
तब तक 
मेरी भावनाओं से खेलना तुम्हारा अपराध नहीं 
सिद्ध कर दिया तुमने ……………… 

इंसानियत की तहजीबों के नकाब उघाड़ना कोई तुमसे सीखे ……… क्या कहूँ तुम्हें 
इंसान कह नहीं सकती 
तो कह दूं तुम्हें क्या हैवान …………ओ पुरुष रूप में छुपे आदम के छद्म रूप !!!

सोमवार, 18 नवंबर 2013

ओ मेरे काल्पनिक प्रेम

ओ मेरे काल्पनिक प्रेम 
प्रेम ही नाम दिया है तुम्हें 
काल्पनिक तो हो ही 
वो भी तब से 
जब जाना भी न था प्रेम का अर्थ 
जब जाना भी न था प्रेम क्या होता है 
फिर भी सहेजती रही तुम्हें 
ख्यालों की  तहों में 
और लपेट कर रख लिया 
दिल के रुमाल में 
खुशबू आज भी सराबोर कर जाती है 
जब कभी उस पीले पड़े 
तह लगे दिल के रुमाल 
की तहें खोलती हूँ 
भीग जाती हूँ सच अपने काल्पनिक प्रेम में 
और जी लेती हूँ एक जीवन 
काल्पनिक प्रेमी के प्रेम में सराबोर हो 
तरोताजा हो जाता है यथार्थ 
जरूरी तो नहीं न तरोताजा होने के लिए कल्पना का साकार होना 

यूं भी काल्पनिक प्रेम कब वैवाहिक रस्मों के मोहताज होते हैं 
ज़िन्दगी जीने के ये भी कुछ हसीन तरीके होते हैं 

सोमवार, 11 नवंबर 2013

सकारात्मक सोच की रौशनी

बालों में छाई सफेदी कोई कहानी कहे ना कहे मगर चेहरे की लकीरें उम्र के तजुर्बे में कब तब्दील हो जाती हैं सब को पता हो या ना हो मगर खुद के अन्दर एक क्रांतिकारी आन्दोलन आड़ोलित होने लगता है और अम्मा ने तो कभी खुद से भी बात नहीं की थी तो कैसे किसी को उसके अन्दर घटित होती घटनाएं तजुर्बे की दीवारों पर कहानी लिख पातीं।  चार बेटों की माँ बन अम्मा अपनी ज़िन्दगी के हर फ़र्ज़ को बखूबी निभा चुकी थीं।  सब अच्छी तरह अपनी गृहस्थी में सुखी थे बस अम्मा ही थी जो पति के जाने के बाद भी अपने को संभाल सबको एकत्र किये थी एक ही छत के नीचे।  बहुओं से भी कभी कोई उम्मीद नहीं करतीं।  सबको कार्य इस तरह बाँट देती कि  किसी को शिकायत न हो।  किसी को कहीं जाना हो तो पहले दिन बताये ताकि अगले दिन उसके बदले के काम बांटे जा सकें यदि कोई बहू भूल जाती थी तो अगले दिन बिना किसी बहू को कुछ कहे अम्मा खुद वो काम करने लगती तो बहू को खुद अपनी गलती का अहसास हो जाता और अगली बार वो ऐसी कोई गलती करने की कल्पना भी नहीं करती।  यही एक परिपक्व सोच की पहचान होती है जिस वजह से कभी घर में कलह न होती सब एक दूसरे  को पूरा प्यार और सम्मान देते।  जब छोटे बेटे की शादी भी हो गयी तो अम्मा ने सारी जमीन जायदाद को सारे  बच्चों में बाँटने का निर्णय लिया और दुकान  और मकान के बराबर चार हिस्से कर दिए बड़े बेटे  के हिस्से पुराना मकान आया तो उसने जब आवाज़ उठाई तो अम्मा ने कहा कि बेटा दुकान  तुम्हें चलती हुयी मिली है यदि ये नहीं लेना तो जो छोटे को दे रही हूँ उससे बदल लो वहां मकान नया होगा मगर दुकान तुम्हें खुद नए सिरे से चलानी होगी तब बड़े बेटे को अहसास हुआ कि हमारी माँ कितनी दूरदर्शी है अब इस उम्र में यदि नयी दुकान चलाऊंगा तो बच्चे बड़े हो गए हैं कैसे उनकी पढाई और शादी की जिम्मेदारी उठाऊंगा दूसरी तरफ छोटे पर अभी जिम्मेदारी नहीं है तो नए सिरे से कारोबार शुरू करेगा तो २-४ साल में व्यवसाय जम जाएगा।  अम्मा की इसी दूरदर्शिता और काबिलयत की वजह से सारे  बहू बेटे दिल से अम्मा का आदर किया करते थे और अम्मा के होते किसी को किसी भी बात की चिंता नहीं होती थी अम्मा जिस भी बेटे के घर बैठी होतीं वहीँ खाना खा लेतीं यहाँ तक कि  कोई भी भाई किसी के भी घर बैठे उठे वही खाना खा लेना , रुक जाना, एक दूसरे के काम आना उनके लिए आम बात थी।  आज अम्मा उनके बीच नहीं रहीं मगर वो अपने पीछे एकता और सहनशीलता में कितनी शक्ति होती है उसके  महत्त्व को  बच्चों में छोड़ गयी थीं।  किसी के बेटे बेटी उसे याद करें उसके जाने के बाद बड़ी बात नहीं मगर यदि उसके जाने के बाद उसकी बहुएँ उसे अपनी माँ से भी ज्यादा याद करें और उनके बताये रास्ते का अनुसरण करें इससे बेहतर और क्या होगा।  आज अम्मा की सकारात्मक सोच की रौशनी उनके परिवार के प्रत्येक बच्चे में ऐसे जज़्ब हो गयी थी जैसे शिराओं में लहू।  
ये किस्सा जब उसकी बहू ने अपनी सहेलियों को सुनाया तो सभी नतमस्तक तो हुयीं ही साथ में सबने अम्मा को सोच की एक एक किरण अपने जीवन में भी आत्मसात करने का निर्णय लिया ………… इस तरह अम्मा समाज में चेतना की नयी रौशनी बिखेर गयी थीं। 

बुधवार, 6 नवंबर 2013

ए --------कभी तो कुछ कहा भी करो

जब भी मिठास कम हुई चाय में
जान जाता हूँ
फिर कुछ टूटा है तुम्हारे अन्तस में
वरना
बिना अपने लबों को छुआये
प्याला दिया है क्या तुमने


जब भी नमक ज्यादा मिला दाल में
जान जाता हूँ
फिर अंधेरों ने शोर किया है तुम्हारे बियाबान में
वरना
तुम्हारी आँखों का नमक ही काफ़ी रहता है मेरे स्वाद के लिये


जब भी तुलसी पर दीया जलता नहीं मिला मुझे
जान जाता हूँ
तुम्हारी कुँवारी वेदना की मुस्कुराती तडप को
वरना
बिना दीया बाती किये साँझ की बत्ती नहीं जलाई तुमने


और ये होता है
तुम्हारी दिनचर्या का 
आखिरी पडाव


जब भी बिस्तर पर सिलवट मिली मुझे
जान जाता हूँ
कितनी कोशिश की होगी तुमने प्रैस से छुपाने की
वरना
यूँ रूह की सिलवटों की खामोशी ना उतरती तुममें


जानाँ -----अरसा हुआ सीख गया हूँ मैं भी अब
तुम्हारे अबोले शब्दों की गूढ भाषा
ए --------कभी तो कुछ कहा भी करो
एक मुद्दत हुयी
आवाज़ सुनने को तरस गया हूँ …………