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गुरुवार, 30 अगस्त 2012

और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो

 राघवेन्द्र अवस्थी जी से किसी ने ये प्रश्न किया तो उन्होने तो अपनी वाल पर जवाब दे दिया मगर हमारे भी भाव उतरे बिना ना रह सके तो प्रस्तुत है हमारे भावों का सागर …………



 तुमने पूछा
जब तुम नहीं रहोगी
तो कौन सी कविता
लिखूँगा मैं ?
उस पर तुम्हारी जिद
अभी सुना दो
जाने के बाद कैसे पढूंगी मैं
उफ़ ..........आखिर ले ही लिया इम्तिहान मोहब्बत का
आखिर ज़िन्दा ही आग लगा दी चिता को
और देखो अब सिंक रहा हूँ मैं
तुम्हारे तपाये तवे की तपिश में
कितना दुरूह है ये ख्याल
कभी सोचा तुमने ?
और मुझे कह रही हो
लिखो वो जो तुम तब मह्सूसोगे
जो कल होना है
वो आज महसूसना .........क्या इतना आसान है?
उन पलों से गुजरना
जैसे दोज़ख की आग में जल रहा हो कोई
फिर भी तुम्हारी ख्वाहिश है ना
तो कोशिश जरूर करूंगा
शायद इसके बाद ना फिर कभी कुछ कह सकूंगा
शायद तुम्हारे जाने के बाद भी नहीं ...........
शायद आखिरी कलाम हो ये मेरा
मेरी मोहब्बत के नाम
चलो बाँध देता हूँ बाँध आखिरी मोहब्बत के नाम




जाने के बाद……………

 
मेरी खामोश मोहब्बत की दस्तखत थीं तुम

जिसमे मैंने पलों को नहीं संजोया था
नहीं संजोया था तुम्हारी हँसी को
तुम्हारी चहलकदमी को
तुम्हारी उदासी या खिलखिलाहट को
नहीं थी तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी प्रियतमा
जीवन संगिनी या कोई अप्सरा
जो संजो लेता यादों के आशियाने में तुम्हें
ये तुम जानती थीं तुम क्या थीं मेरे लिए
थीं क्यों कहूं तुम क्या हो मेरे लिए
क्योंकि तुम गयी कहाँ हों
यहीं तो हो ............मेरे वजूद में
अपनी उपस्थिति का अहसास करतीं
तभी तो देखो ना
सुबह सुबह सबसे पहले
प्रभु सुमिरन , दर्शन के बाद
रोज लग जाता हूँ उसी तरह गृहकार्य में
और समेट लेता हूँ
सुबह का दिव्य आलोकित नाद अपने अंतरपट में
बिल्कुल वैसे ही
जैसे तुम किया करती थीं
तो बताओ कहाँ जुदा हो तुम
जो सहेजूँ यादों के छोरों  में
दिन के चढ़ने के साथ बढ़ता ताप
मुझे बैठा देता है अपने पास
जहाँ मैं अपनी कल्पनाओं को उड़ान देता हूँ
और पता ही नहीं चलता
वक्त खुद गुजरा या मैंने उसे रुसवा किया
क्योंकि मेरे पास आकर
वक्त भी ख़ामोशी से मुझे ताकता है
कि कब सिर उठाऊँ और उसे आवाज़ दूं
मेरी साधना में बाधा नहीं ड़ाल पाता
तो खुद मायूस हो ताकता रहता है मुझे
बिल्कुल वैसे ही जैसे जब तुम थीं
तो यूँ ही साध्नामग्न हो जाती थीं
और वक्त तुम्हारे पायताने पर
कुलाचें भरता रहता था
बताओ फिर कैसे वजूद जुदा हुए
तुम मुझमे ही तो सिमटी हो
कोई भी कड़ी ऐसी नहीं जो भिन्न हो
फिर कहो तो कौन किसे याद करे
यहाँ तो खुद को ढूँढने निकलता हूँ
तो तुम्हारा पता मिल जाता है
और मैं तुम्हारे घर की चौखटों पर
अपने अक्स से बतियाता हूँ
पता ही नहीं चलता
कौन किससे बतिया रहा है
सुना है दीवाना कहने लगे हैं कुछ लोग
मगर नहीं जानते ना
तुम मेरी लिए सिर्फ प्रेयसी या पत्नी ही नहीं थीं
बल्कि मेरी प्रकृति बन गयी थीं / नहीं बन गयी हो
तभी तो कब कोई भी वजूद
अपनी प्रकृति बदल सकता है
और सुना है इन्सान का सब कुछ बदल सकता है
मगर प्रकृति नहीं ..........स्वाभाविक होती है
शायद तभी तो नहीं खोजता तुम्हें
नहीं ढूँढता तुम्हें घर आँगन में
तस्वीरों के उपादानों में
यादों के गलियारों में
तन्हाई की महफ़िलों में
क्योंकि जुदा वजूदों पर ही दस्तावेज लिखे जाते हैं
और तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो .........ओ मेरी जीवनरेखा !!!!!!!!

सोमवार, 27 अगस्त 2012

धन्य हो तुम ! जो मुझे विस्तार देते हो

मैं
भाव साम्राज्य का पंछी
तुम पंखों की परवाज हो
मैं आन्दतिरेक का सिन्धु
तुम मोती खोजते गोताखोर
मैं सरगम की सिर्फ एक तान 
तुम उसका बजता जलतरंग
कैसे तुमसे विलग मैं
कैसे मुझसे पृथक तुम 
तुम बिन शायद अस्तित्व 
मेरा शून्य बन जाये
शायद ही कोई मुझे समझ पाए
या मेरे भावों में उतर पाए
धन्य हो तुम ! जो मुझे विस्तार देते हो
मेरी कृति के बखिये उधेड़ देते हो
मुझे और मेरी कृतित्व  को 
एक नया रूप देते हो 
सोच को दिशा देते हो 
अर्थों को तुम मोड़ देते हो 
शब्दों की यूँ व्याख्या करते हो 
जैसे रूह को स्पंदन देते हो 
जहाँ मौन भी धड़कने लगता है
ज़र्रा ज़र्रा बोलने लगता है 
मूक को भी जुबाँ मिल जाती है 
यूँ हर कृति खिल जाती है 
तुम संग मेरा अटूट नाता
गर मैं हूँ रचयिता 
तो तुम हो पालनहार 
कैसे तुमसे विमुख रहूँ
कैसे ना तुम्हें नमन करूँ
मुझसे ज्यादा मुझे विस्तार देते हो 
मेरी कृति को मुझसे ज्यादा समझते हो 
हाँ मैं हूँ कवि सिर्फ कवि 
और तुम हो समीक्षक ...........मेरी विस्तारित आवाज़

रविवार, 19 अगस्त 2012

हे भ्रष्टाचार ! तुम्हें नमन है ..........

अब आदत हो गयी है घोटालों की
इस देश के गद्दारों की
असर नही अब होता हम पर
मोटी चमडी हमारी भी है
तभी तो छूटे कलमाडी भी है
मै ,मेरा घर ,मेरे बच्चे से इतर
जब तक ना सोच पायेंगे
यूँ ही सिर्फ़ सियासतदारों को कोसे जायेंगे
जब तक खुद ना हाथ मे
मशाल उठायेंगे
एक नया बिगुल नही बजायेंगे
यूँ ही लूटे खसोटे जायेंगे
थ्री जी हो या खेल घोटाला
या हो कोयला आबंटन
क्या फ़र्क पड जायेगा
कल दूजा रूप बदल कर फिर
नया घोटाला  नज़र आयेगा
अब इस देश मे कोई भी
भ्रष्टाचारी बनने से ना बच पायेगा
क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा का गुण
तो हर देशवासी अपनायेगा
वैसे भी जब सैंयां भये कोतवाल
तो डर काहे का ……कह
हर कोई भ्रष्टाचार का परचम लहरायेगा
मगर भ्रष्टाचार ना मिट पायेगा
वैसे भी क्या मिल जायेगा  ईमानदारी से
दो वक्त की रोटियों का जुगाड़ भी ना हो पायेगा
मगर सफेदपोश भ्रष्टाचारियों को तो
कोई ना हाथ लगाएगा
जो ये सच जान जायेगा
क्यों ईमानदारी की आँच पर सिंकने जायेगा
हल खोजना हो तो इतिहास खंगालना पड़ेगा
फिर एक भगतसिंह पैदा करना पड़ेगा
तब कहीं जाकर मुखौटा बदलेगा
जब तक ना सोई आत्मा जागेगी
जब तक ना फिर से कोई
भगतसिंह सा
सियासतदारों के कानों मे
बम ना फ़ोडेगा
तब तक ना मौसम यहाँ का बदलेगा
तब तक यूँ ही मेरा मन गाता रहेगा
अब आदत हो गयी है घोटालों की
इस देश के गद्दारों की…………
हे भ्रष्टाचार ! तुम्हें नमन है ..........

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

तुम लम्हा हो कि खामोशी ???

तुम लम्हा हो कि खामोशी पूछ लिया जब उसने 

दर्दे दिल भी मुस्कुराकर सिमट गया खुद मे 

ढूँढती हूँ खुद मे लम्हों का सफ़र 

बूझती हूँ खुद से खामोशी का कहर

ना लम्हा किसी हद मे सिमट पाया 

ना खामोशी किसी ओट मे छिप पायी

अब खुद को खामोशी कहूँ या लम्हा 

ज़रा कोई उनसे ही पूछकर बतला दे 

कैसे लम्हे खामोशी का ज़हर पीते हैं

कैसे खामोशी लम्हों मे पलती है


कोई जुदा करके बतला दे ………यारा!!!!

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

एक विषय से इतर क्या हो सकते हैं .........ज़रा सोचिये ?


"मैं और मेरा देश"
विषय ही रह गया है बस
कितने दिलों में देश
उसकी अस्मिता
उसका स्वाभिमान
उसका गौरव
सांस लेता है
आते हैं सभी
अपनी अपनी ढपली
और अपने अपने राग से
सुनाते हैं दास्तानें
करते हैं आडम्बर
बनते हैं देशभक्त
मगर क्या सच में होता है
कोई शख्स उनमे
जो वास्तव में शुभचिंतक हो
जो वास्तव में जीवट हो
जो जानता हो
आज़ादी का मोल
कैसे जान सकता है कोई
आज़ादी का मोल
जब गुलामी की बेड़ियों में
अब तक जकड़े हों
अब तक ना जिनका लहू खौला हो
आदत पड़ गयी हो जिन्हें
जूते और जूठन उठाने की
कैसे उम्मीद करें
बैठेंगे साथ
लेंगे भोजन का आनंद
नहीं जानते जो
आज़ादी की कीमत
कैसे उम्मीद करें उनसे
आज़ादी के अर्थों की
६५ वर्षों के बाद भी
कहाँ मुक्त हैं हम
अशिक्षा, बेईमानी ,
बेरोजगारी, भ्रष्टाचार
का परचम कैसे लहरा रहा है
जिसमे हर भारतीय डूबा जा रहा है
एक ऐसी दलदल
जिससे जितना बाहर आना चाहो
उतना ही नीचे धंसते जाओगे
कोशिशों के कितने पुल बनाओ
महासागर की बड़ी मछलियों से
कैसे बच पाओगे
शार्क कब दबोच ले नहीं जान पाते
और एक अंधे गहरे दलदल में
जब खुद को पाते हैं
कितना ही हाथ पैर चलाओ
उतने ही धंसते जाते हैं
सिस्टम को बदलने की पुरजोर कोशिशें भी
उस वक्त नाकाम होती हैं
जब अपने घर के दरख्तों पर ही
पाला पड़ा मिलता है
हर घर पर सांकल लगी होती है
मैं और मेरा घर , मेरे बच्चे
मेरी जरूरत से ऊपर
हम उठ ही नहीं पाते
जो हो रहा है
वो मेरे साथ नहीं हो रहा
तो मैं क्यों कोशिश करूँ
कहीं आफत मेरे सिर पर ही ना आ जाए
डर की गिरफ्त में डूबा हर शख्स
नहीं लगाता इंकलाबी नारे
नहीं देता साथ
और पिसता रहता है
गेहूं के दानों सा
भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र की चक्की में
आवाज़ पर लगे तालों की चाबी को
फेंक आता है दरियाओं में
फिर साथ देने की उससे उम्मीद क्यों और कैसी ?
जब ऐसा मेरा व्यक्तित्व है
जब मैं स्वयं स्वार्थी हूँ
नहीं दिखता मुझे मुझसे ज्यादा कुछ भी
फिर कैसे देख सकता हूँ
देश को और उसकी दुर्दशा को
कैसे कर सकता हूँ आज़ाद
खुद को  या देश को
अपनी ही जकड़ी बेड़ियों से
ऐसे में क्या है मेरे लिए महत्त्व स्वतंत्रता का
सिर्फ इतना ही
महज एक दिन की सरकारी छुट्टी
अपनी तरह व्यतीत करने का जरिया
औपचारिकता प्रमाणिक नहीं होती
ये जानते हुए भी
मैं नहीं सोचता अपने देश के बारे में
क्योंकि गुलाम हूँ मैं अभी
अपनी जड़वादी सोच का
गुलाम हूँ मैं अभी
अपने अन्दर बैठे डर का
गुलाम हूँ मैं अभी
अपने लालच का
ऐसे में
"मैं और मेरा देश "
मेरे लिए सिर्फ
एक विषय से इतर क्या हो सकते हैं .........ज़रा सोचिये ?

शनिवार, 11 अगस्त 2012

क्योंकि मुझे नहीं आता जन्मदिन मनाना .......तुम्हारा



मनाते रहे ता-उम्र
ज़िन्दगी की खुशफहमियां
फिर चाहे वो
जन्मदिन के रूप में हों
या वर्षगांठ
या अन्य कोई उत्सव हो
एक के बाद एक चाहतें
ज्वार - भाटों सी उमड़ी आती हैं
और हम बहते रहते हैं
सारे तटबंध तोड़ते हुए
मगर कभी जान नहीं पाते
समझ नहीं पाते
वो कर नहीं पाते
जो करना चाहिए
जो जरूरी है
यूँ तो बनते हैं हम
पक्के कर्मकांडी
बनते हैं पुजारी
दिखाते हैं सबको
हम हैं उसी में राजी
जिसमे उसकी रज़ा है
मगर वास्तव में
कहाँ ऐसा हो पाता है
कहाँ हम में आया
वो समर्पण
वो अर्पण
वो वंदन
वो नमन
गर होता ऐसा
तो ना करते वैसा
जैसा मैंने किया
है ना ............
देखो ना
कहने को कह देती हूँ
समर्पित हूँ पूर्णरूपेण
मगर क्या यही है
समर्पण की परिभाषा
जब सारा जहान तुम्हारे
आगमन की आशा में
उल्लास में डूबा हो
वहाँ मेरे निष्ठुर  मन में कोई
उमंग उठी ही ना हो
किसी हिलोर ने
दस्तक दी ही ना हो
गर होती कोई पीर
बढती प्रसव वेदना
जो जन्म होता ना.....तुम्हारा
आ जाते ना तुम
छोड़ वैकुण्ठ मन वृन्दावन में
मगर नहीं हुआ ऐसा
जानते हो क्यों
क्योंकि
जब सारा जहान
तुम्हारा जन्मोत्सव मना रहा था
तुम्हारे आगमन की
उत्कंठा में द्रवित हो रहा था
जब इंतज़ार चरम पर पहुँच रहा था
उस वक्त मैं........हाँ मैं
डूबी थी सांसारिक कर्म में
ना कोई उत्कंठा थी
ना प्रबल चाह
ना कोई पीर
ना कोई वेदना
ना तुम्हें बुलाने की कोई चाह
तटस्थ सी थी
तुम्हारे जन्म से
पता नहीं क्यों
कोई भाव जागृत ही नहीं हुआ
ना भाव , ना शब्द
ना कोई अलंकरण , ना कोई स्पंदन
फिर कहो माधव
कैसे हो तुम्हारा अवतरण
सुना है
तुम तब तक नहीं लेते जन्म
जब तक
प्रतीक्षा और उत्कंठा
चरम सीमा को
ना पार कर जाएँ
तो मोहन
माफ़ करना मुझे
मुझमे नहीं है वो संबल
नहीं है वैसा धैर्य
नहीं है वैसी प्रबल भावना
नहीं है वैसी आतुर पुकार
नहीं डूब सकती
तुम्हारे मोहजाल में
नहीं बन सकती मीरा
जो गली- गली अलख जगाती फिरे
नहीं बन सकती राधा
जो तुम्हारी बांसुरी की धुन पर
मतवारी हो दीवानी कहाती फिरे
माफ़ करना मोहन
बस ऐसी ही हूँ मैं
जो सिर्फ ऊपरी आडम्बर करती है
वास्तव में तो
तुम्हारे लिए ना कोई स्वांग रचती है
तो बताओ फिर नटखट
जहाँ तुम्हारे सारे भक्त
जय- जयकार लगा रहे हों
तुम्हें आवाज़ दे बुला रहे हों
तुम्हारे दीदार को तरस रहे हों
वहाँ पहले जाओगे या नहीं
उनका माखन मिश्री खाओगे या नहीं
पंचामृत से स्नान करोगे या नहीं
और बनता भी यही है
जहाँ आदर हो
वहीं जाना चाहिए
जिस घर के कपाट बंद हों
वहाँ क्यों दस्तक दे कोई
तुम्हें क्या कोई कमी है
एक से एक भक्त भरे पड़े हैं संसार में
जो तुम्हारे लिए मिटने को तैयार हैं
ऐसे में मेरे जैसे नश्वर जीवों की क्या बिसात
देखो सारा संसार
कैसे आनादोत्सव मना रहा है
तुम्हारे जन्मोत्सव के आनंद में
कहीं दही हांड़ी फोड़ी जा रही है
तो कहीं मंदिरों के बाहर
कतारें लगी हैं---तुम्हारे दीदार के लिए
जाओ मोहन वहीं जाओ
वहीं जाना बनता है तुम्हारा
मेरे जैसी दम्भी , पाखंडी
निर्मोही , स्वार्थी  के
दर पर तुम्हें क्या मिलेगा
सारे अवगुणों की खान हूँ
हर द्वार पर सांकल हो
ये जरूरी तो नहीं ना ......मोहन
फिर ना तो मैं यशोदा हूँ ना देवकी
जो दूध का क़र्ज़
तुम पर चढ़ा हो
जिसे चुकाने के लिए
तुम्हें जन्म लेना पड़े
मेरे घर की सपाट
सफ़ेद दीवारों पर
जरूरी तो नहीं
श्याम रंग का रोगन चढ़े ही
ना पूजन किया
ना वंदन ना नमन
ना श्रृंगार ना गायन
ना आरती
ना तिलक लगाया
ना तुम्हारा विग्रह बनाया
सिर्फ रोज की तरह
दिन गुजारा
सारे लक्षण तो देखो ना
नस्तिकी ही हैं
इसलिए
पूत नहीं जिसके
वो पूतना समझ लेना
और अगर कहीं कोई बूँद बची हो मुझमे
तो मेरे उस प्रेम रस का आस्वादन कर लेना
क्योंकि
मुझे नहीं आता जन्मदिन मनाना .......तुम्हारा
ओ गिरधारी, बनवारी, मुरारी , नटवरधारी


मंगलवार, 7 अगस्त 2012

काव्य पाठ हो या नारी जीवन

 दोस्तों
 डायलाग मे कविता पाठ करना है जब अंजू जी ने बताया तो समझ नही आया कि कैसे करूँगी क्योंकि इससे पहले कभी ऐसा मौका आया ही नही था । ये भी नही पता था कि कैसे किया जाता है और इसी उधेडबुन का नतीजा निकला कि ये कविता बन गयी तो सोचने लगी इसे प्रस्तुत करूँ या नही तभी अरुण जी से बात हुई और उन्हें बताया और कविता दिखाई तो बोले कि सबसे पहले यही कविता सुनाना तो थोडा हौसला बढा और आखिरकार डरते डरते पहले कविता पाठ की पहली कविता प्रस्तुत कर ही दी जो अब आपके सम्मुख है …




मुझे नहीं आता
काव्य पाठ करना
ज़िन्दगी भर लिखती ही तो रही
कहाँ रुकना है
कहाँ चलना है
कहाँ वेदना का स्वर देना है
कहाँ आश्चर्य व्यक्त करना है
कहाँ शब्दों को बार बार
दोहराना है
कुछ भी तो नहीं जानती
कभी सोचा जो नहीं इस बारे में
शायद तभी कोई फर्क नहीं है
नारी के जीवन और कर्म में
ऐसे ही तो जी जाती है
वो जीवन को
दे देती है गति अपने कर्म को
कर देती है निर्माण
नवीन स्तंभों का
मगर नहीं जानती
कहाँ रुकना था
और कहाँ चलना था
क्या छुपाना  था
और क्या व्यक्त करना था
क्या दोहराना था
और कहाँ चुप रहना था
नहीं जानती वो ये सब
सिर्फ अपने जीवन की भट्टी में
संघर्ष , सहनशक्ति, आत्मीयता के
तवे पर सिर्फ कर्म की रोटियां सेंकती है
और परोस देती है बिना जलाये
भर देती है पेट सबका
स्व का अर्पण करके
होम कर देती है जीवन अपना
सिर्फ एक निश्छल मुस्कान के लिए
कर्म की ऐसी निश्छल पावनता की प्रतिमूर्ति
सिर्फ नारी में ही तो हो सकता है
शायद तभी
काव्य पाठ हो या नारी जीवन
निश्छल बहे जाने की अनुभूति तो सिर्फ वो स्वयं ही महसूस कर सकते हैं

शनिवार, 4 अगस्त 2012

जीवित मुर्दों की लाशों को कफ़न कौन ओढाये?

कोलाहलों का वटवृक्ष
नीर का क्षीरसागर
जीवन्तता की अचेतावस्था
जैसे कूंडों में दही जमी हो
और खाने वाला कोई ना हो
फिर कौन तो तवे पर रोटी बनाये
और कौन किसे लोरी सुनाये
यहाँ कब्रिस्तान की ख़ामोशी होती
तो सह भी ली जाती
मगर
जीवित मुर्दों की लाशों को कफ़न कौन ओढाये?

बुधवार, 1 अगस्त 2012

आ गयी है अब ये बात समझ क्यों इन कच्चे तारों में इतनी मजबूती होती है ..............



कैसा होता है स्नेह
भाई बहन का
नहीं जानती
कभी उन अहसासों से
गुजरी जो नहीं
तो कैसे जानूंगी
क्या तकरार होती है
और क्या प्यार होता है
कैसे भाई बहन के लिए
और बहन भाई के लिए
एक राखी के वचन के लिए
खुद को कुर्बान कर देते हैं
नहीं जानती
कभी गुजरी जो नहीं
इन अहसासों से
कोई भाव उमड़ता ही नहीं
कैसे उमडेगा?
जब उस स्नेह के बँधन से
मन ओत-प्रोत हुआ ही नहीं
एक उम्र गुजरती रही
साल दर साल रक्षाबंधन
आती रही जाती रही
फिर जब मेरे आँगन की फुलवारी में
दो नन्हे फूल खिले
जो रोज चहकते थे
कभी लड़ते और झगड़ते थे
तो कभी एक के दर्द पर
दूजा बेचैन हो जाता था
तब जाकर ये समझ आया
क्या होता है इस स्नेह का बँधन
बेशक आज भी
कितना लड़ झगड़ लें दोनों
मगर फिर स्नेह के अटूट बँधन में बंधा रिश्ता
अपनी ऊष्मा रखता है
खुद तो कभी जान ना पायी
खुद तो कभी जी ना पायी
मगर अब नन्हों की
खट्टी मीठी तकरारों में
कभी स्नेहमयी मुस्कुराहटों में
कभी राखी के तारों में
जी लेती हूँ एक जीवन
जान लेती हूँ मोल कच्चे तारों का
यूँ ही तो नहीं कटी थी ऊंगली कृष्ण की
यूँ ही तो नहीं बांधा था कृष्णा ने कच्चे तारों से
यूँ ही तो नहीं अम्बार लगा था साड़ियों का
यूँ ही तो नहीं लक्ष्मी ने माँगा था द्वारपाल
यूँ ही तो नहीं बलि ने कृष्ण को मुक्त किया था
आ गयी है अब ये बात समझ
क्यों इन कच्चे तारों में इतनी मजबूती होती है ..............