पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

बुधवार, 29 जून 2011

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

ये आस्तीन के साँपों की दुनिया
ये झूठे चालबाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

कभी झूठी बातें कभी झूठे चेहरे

कभी इन्सान को मिटाने के
करते हैं बखेड़े
हर एक शख्स झूठा
हर इक शय है धोखा
अपनों की भीड़ में छुपा है वो चेहरा
गर इसे पहचान भी जायें तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

कभी पीठ में खंजर भोंकती है दुनिया

कभी सच्चाइयों को रौंदती है दुनिया
हर तरफ फैली है नफ़रत की आँधी
हर ओर जैसे बिखरी हो तबाही
बंजर चेहरों में अक्स छुपाती ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है





अब चाहे मिटाओ या फूंक डालो ये दुनिया
मेरे किसी काम की नहीं है ये दुनिया 
बारूद के ढेर पर बैठी ये दुनिया  
किसी की कभी न होती ये दुनिया
कितना बचके चलना यहाँ पर
 किसी को कभी न बख्शती ये दुनिया 
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

रविवार, 26 जून 2011

क्या ऐसा होगा

ये सुबह ठहरती क्यों नही……
कब तक आस के मोती सम्हालूँ
जानते हो ना
तुम्हारी आस ही
ज़िन्दा रखे है
और तुम मेरी ज़िन्दगी की सुबह
जब तुम वापस आओगे
जानते हो ना
उसी दिन सुबह ठहरेगी मेरे आँगन में
कभी ना जाने के लिए ......तुम्हारी तरह
क्या ऐसा होगा ..........
मेरी आस का सूरज उगेगा........

और आसमां धरती पर उतरेगा
बताओ ना ...........
क्या ऐसा होगा
जब कुमुदिनी दिन में खिलेगी

गुरुवार, 23 जून 2011

पता नही क्यूँ

पता नही क्यूँ किनारा कर जाते हैं लोग
कुछ ऐसे मुझे आजमाते है लोग

जब भी मुझे अपना बनाते है लोग
फिर एक नया दगा दे जाते है लोग

अभी खुशफ़हमियों मे जी भी नही पाती
कि एक नयी हकीकत दिखा जाते है लोग

जिसे भी अपना समझ कदम बढाया मैने
उसी कदम पर ठोकर लगा जाते है लोग

दिल को मेरे खिलौना समझने वाले
रोज वो ही खिलौना तोड जाते है लोग

मै भी सिर्फ़ पत्थर नही एक इंसान हूँ
बस इतना सा ना समझ पाते है लोग

सोमवार, 20 जून 2011

आस्माँ रोज़ नही बदलता लिबास

तुम चाहते थे ना जीयूँ तुम्हारी तरह
लो आज तोड दीं सारी श्लाघायें
ढाल लो जिस सांचे मे चाहे
दे दो मनचाहा आकार
मगर फिर बाद मे ना कहना
नही चाहिये अपनी ही लिखी तहरीर
बदल दो फिर से कम्बल पुराना
जमीन रोज़ नही बदलती रूप
और तुम कहो कहीं फिर से
दे दो अपना पुराना सा
 रूप फिर से मुझे वापस
बताओ तो …………
एक बार टूटे साँचे कब जुडते हैं
कहाँ से लाउँगी मिट्टी को वापस
जानते हो ना……………
आस्माँ रोज़ नही बदलता लिबास

गुरुवार, 16 जून 2011

गर तूने ख्वाहिश की होती

तू खुश रहा वीरानों में
जगलों में पहाड़ों में
कभी ज़िन्दगी के
तो कभी
महफ़िलों के
हाँ महफ़िलों के भी
वीराने होते हैं
जब महफ़िल बाहर होती है
और दिल वीरान होते हैं
तू क्या समझता है
तेरे दिल की वीरान पगडंडियाँ
और वहाँ खड़े शुष्क पेड़ अरमानों के
तेरे अकेलेपन के गवाह
मुझे नहीं दीखते
अरे मेरी आँख की वीरानियों से
ही तो तेरी राहें गुजरती हैं
और छोड़ जाती हैं
अंतहीन निशाँ तेरी
हसरतों के
जिन्हें मैं अपनी पलकों
की कोरों पर सजा लेती हूँ
और करती हूँ इंतज़ार
उस पल का जिस दिन
तू खुद मुझसे मांगे
अपने सपनों को
अपनी ख्वाहिशों को
सच कहती हूँ………
तोड़ लाती चाँद आसमाँ से
गर तूने ख्वाहिश की होती

सोमवार, 13 जून 2011

वो जो शख्स रहता है मुझमे

वो जो शख्स रहता है मुझमे 
गर्मी की धूप सा जलता है मुझमे 
लावा जब कोई फूटता है उसमे
सुकूँ का इक दरिया बहता है मुझमे 
निकलती जब आह है उसमे 
डरता तब आसमान भी है उससे 
रेत भी समंदर नज़र आता है उसमे
दर्द से जब वो खिलखिलाता है मुझमे 
रौशनियों से जब लड़ता है मुझमे
अंधेरों को तब जीता है मुझमे 
वो जो शख्स रहता है मुझमे 
धूल भरी आँधियों सा चलता है मुझमे 

शुक्रवार, 10 जून 2011

आखिर कतरनें भी कभी सीं जाती हैं

इंतज़ार के पलों को
सींते सींते
बरसों बीते
मगर इंतज़ार है
कि बार बार
उधड जाता है
सीवन पूरी ही नही होती
 

कभी धागा कम पड़ जाता है
तो कभी सुईं खो जाती है
और अब तो
वो नाता भी नहीं बचा
जिसे सीने के लिए
उम्र तमाम की थी
आखिर कतरनें  भी
कभी सीं जाती हैं

मंगलवार, 7 जून 2011

इस देश का यारों क्या कहना……… ये देश है कसाबों का गहना

ये देश है भ्रष्टाचारियों का
सत्ता के लोलुपों का
इस देश का यारों क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना
यहाँ ए के 47 चलाने वाले
सर आँखों पर बैठाये जाते हैं
घर जँवाई बनाये जाते हैं
और घरवालो को घर से
निकाला जाता है
कार्यवाहियाँ की जाती हैं
बेमौत मरवाया जाता है
कानून का डर दिखाया जाता है
इस देश का यारों क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना

यहाँ पीठ मे छुरियाँ भोंकी जाती हैं
जनता की कमाई खायी जाती है
और जनता ही पिटवायी जाती है
इसी दिन के लिये तो जनता मे
चुनावो मे मिठाइयाँ बँटवाई जाती हैं
अब भुगतने का वक्त आया तो
जनता की गर्दने फ़ँसायी जाती हैं
जोर आजमाइशे अपनाई जाती हैं
और अपनी कुर्सियाँ बचाई जाती हैं
इस देश का यारों क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना

यहाँ झूठी शक्लें सरकारों की
यहाँ जय जयकार होती है कसाबो की
नित नित नये घोटाले होते हैं
स्विस बैंके मे पैसे जमा होते हैं
जाँच आयोग बैठाये जाते हैं
अपने कर्मी बचाये जाते हैं
सिर्फ़ ईमानदार मरवाये जाते हैं
देश हित की आवाज़ उठाने वाले ही
आन्दोलन चलाने वाले ही
जेल मे डलवाये जाते हैं
इस देश का यारो क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना

शनिवार, 4 जून 2011

देह की देहरी लांघी तो होती

सिर्फ देह की देहरी को ही
न पूजा होता
कभी इससे भी ऊपर
उठा होता
कभी देह की देहरी को
लाँघ पाया होता 
तो शायद इन्सान 
बन पाया होता
इस देहरी के पार
इक बार झाँका होता
तो मन का हर 
पता पा गया होता
वो जो इसी दहलीज पर
टूटता बिखरता रहा 
उस रिश्ते को कुछ तो
संभाल पाया होता
इसकी चौखटों पर टंगे
ख्वाबों की जलन को
जान पाया होता
कुछ पल उस ऊष्मा 
में खुद को झुलसाया होता
तो शायद  दर्द सहने का 
सलीका जान पाया होता
बेजुबान अश्रुकणों को 
कभी ऊँगली लगायी होती
तेज़ाब के कहर से
तेरी आँख भर आई होती
तू इक पल कभी 
वहां रुका होता तो 
मन के कोने में पड़ी
अपनी खंडित प्रतिमा
देख पाया होता
और जो सैलाब बरसों से
रुका पड़ा था
हर तटबंध को तोड़ता
तेरे आगोश में 
सिमट आया होता
बस सिर्फ एक बार तूने
देह की देहरी लांघी तो होती       

गुरुवार, 2 जून 2011

अब बुकमार्क जरूरी हो गया है

मैंने चाहा था
चाहतों पर
इक निशाँ
लगा दूं
तुम्हारे लिए
वैसे मोहब्बत को
निशानों की
जरूरत नहीं होती
मगर तुम ही
रास्ता भूलने लगे हो
शायद इसलिए
अब बुकमार्क
जरूरी हो गया है