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बुधवार, 4 मार्च 2009

घटता बढ़ता आकाश

मेरे घटते बढ़ते आकाश हो तुम
कभी पास होते हो तो
कभी कोसों दूर
तुमसे मिलने की चाह में
प्यासी है रूह मेरी
पर तुम अपने ही आकाश में
खो जाते हो
मेरे दिल के दायरों में
न सिमट पाते हो
कभी महसूस होता है
हाथ बढ़ाने पर छू लूंगी तुम्हें
तुम्हारे दिल के हर
जज़्बात को जी लूंगी मैं
पर तुम फिर भी मुझे
उतनी ही दूर नज़र आते हो
क्यूँ मैं तुम्हें छू नही पाती
तुम्हारे दिल के आँगन में
उतर नही पाती
कौन सा आकाश है तुम्हारा
जिसने तुम्हें बाँधा हुआ है
क्यूँ सदाएं मेरी
तेरे दिल पर
दस्तक नही दे पातीं
क्यूँ पास होकर भी तुम
मेरे पास नही होते
क्यूँ अपने ही आकाश में
सिमटे होते हो
इक बार इक नज़र डाल कर तो देखो
मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा
फिर एक बार
तुम्हारा आकाश
और बढ़ जाएगा

7 टिप्‍पणियां:

Prem Farukhabadi ने कहा…

इक बार इक नज़र डाल कर तो देखो
मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा
फिर एक बार
तुम्हारा आकाश
और बढ़ जाएगा
Pyar samjhne ki nahin mahsoos karne ki baat hoti hai. bahut khoob.badhaai ho !

Prem Farukhabadi ने कहा…

bahut sundar rachna. badhaai ho

Unknown ने कहा…

क्या बात है वन्दना जी । कल्पनाओं को शब्द के माध्यम से जीवित सा कर दिया है। बहुत ही बढ़िया रचना । पूरे के पूरे सौ अंक ।

आवारा प्रेमी ने कहा…

तुम्हारे दिल के हर जज्बात को जी लूंगी मैं...

प्रशंसा के शब्द नहीं रहे
..फिर भी इतना भर कहूंगा
मुझे और गूंगा बना दिया
एक ही सुनहरी आभा-सी
सब चीजों पर
छा गई.

Prem Farukhabadi ने कहा…

vandana ji ,
ye hain meri pasand ki paktiyan. badhaai ho.
इक बार इक नज़र डाल कर तो देखो
मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा
फिर एक बार
तुम्हारा आकाश
और बढ़ जाएगा

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

वंदना जी
अभिवंदन
अच्छी अभियक्ति है.
दूरदर्शिता और संवेदना भी परिलक्षित हो रही है.

" मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा "
- विजय

शारदा अरोरा ने कहा…

बहुत सही और स्वाभाविक अभिव्यक्ति दी है , संवेदन शील मन की प्यास को | जैसे धरती अम्बर मिलन को तरसते रहते हैं , धरती को जुबान मिल गयी है , मगर अम्बर के दिल की कौन कहे !